News hindi tv

High Court : इन लोगों को लिव इन रिलेशनशीप में रहने का नहीं हैं अधिकार, जानिए हाईकोर्ट का फैसला

High Court Decision : आपको बता दें कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हाल ही में अपने एक अहम फैसले में यह साफ कर दिया हैं। कि इन लोगों को लिव इन रिलेशनशीप (live-in relationship) में रहने का अधिकार नहीं हैं। हाई कोर्ट (High Court) कि ओर से आए इस फैसले के बारे में विस्तार से जानने के लिए खबर को पूरा पढ़े।
 | 
High Court : इन लोगों को लिव इन रिलेशनशीप में रहने का नहीं हैं अधिकार, जानिए हाईकोर्ट का फैसला

NEWS HINDI TV, DELHI : आपको बता दें कि हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट (Allahabad High Court) ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि इस्लाम धर्म को मानने वाला कोई भी व्यक्ति लिव-इन रिलेशनशिप (live-in relationship) में रहने का दावा नहीं कर सकता है. विशेषकर यदि उसका पहले से ही एक जीवित जीवनसाथी है। कोर्ट ने कहा कि मुस्लिमों द्वारा अपनाए जाने वाले रीति-रिवाज उन्हें लिव-इन रिलेशनशिप में रहने का अधिकार नहीं देते हैं।

न्यायमूर्ति अताउर रहमान मसूदी और न्यायमूर्ति अजय कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने कहा कि जब किसी नागरिक की वैवाहिक स्थिति की व्याख्या व्यक्तिगत कानून और संवैधानिक अधिकारों दोनों के तहत की जाती है, तो धार्मिक रीति-रिवाजों को भी समान महत्व दिया जाना चाहिए। न्यायालय (Court) ने आगे कहा कि संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त और सक्षम विधानमंडल द्वारा बनाए गए सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं और कानूनों के स्रोत समान हैं।

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने कहा, "एक बार हमारे संविधान के ढांचे के भीतर रीति-रिवाजों और प्रथाओं को वैध कानून के रूप में मान्यता मिल जाती है, तो ऐसे कानून उचित मामलों में भी लागू होते हैं।" अदालत ने अपने आदेश में कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत लिव-इन रिलेशनशिप का संवैधानिक अधिकार तब लागू नहीं होता जब रीति-रिवाज और प्रथाएं दो व्यक्तियों के बीच ऐसे संबंधों पर रोक लगाती हैं। हाई कोर्ट (High Court) ने कहा, "इस्लाम में आस्था रखने वाला कोई भी व्यक्ति लिव-इन रिलेशनशिप के अधिकार (Live-in relationship rights) का दावा नहीं कर सकता, खासकर तब जब उसका कोई जीवनसाथी जीवित हो।" 

हाई कोर्ट (High Court) ने यह टिप्पणी उस याचिका की सुनवाई के दौरान की जिसमें एक व्यक्ति के खिलाफ अपहरण के मामले को खारिज करने का अनुरोध किया गया था. याचिका में हिंदू-मुस्लिम जोड़ों के लिव-इन रिलेशनशिप (live-in relationship) में दखल न देने का निर्देश देने की भी मांग की गई है. सुनवाई और सबूतों की जांच के दौरान, अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता, एक मुस्लिम व्यक्ति, पहले से ही एक मुस्लिम महिला से शादी कर चुका था और उसकी पांच साल की बेटी थी।

अदालत को बताया गया कि मुस्लिम व्यक्ति की पत्नी को अपने पति के एक हिंदू महिला के साथ लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि वह कुछ बीमारियों से पीड़ित थी। बाद में अदालत ने दोनों महिलाओं को कोर्ट में पेश करने का आदेश दिया। कोर्ट ने पाया कि याचिका मूल रूप से लिव-इन रिलेशनशिप (live-in relationship) को वैध बनाने के लिए ही डाली गई थी।